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विपक्ष बनाम सत्तारूढ़ घटक की रैली

Election
31 मार्च को राजधानी दिल्ली के रामलीला मैदान में विपक्षी गठबंधन आईएनडीआईए की तथा चुनाव की घोषणा के बाद उत्तर प्रदेश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राजग की पहली रैली मेरठ में हुई। हालांकि इस बार मेरठ रैली से ज्यादा प्रचार रामलीला मैदान की थी, क्योंकि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी तथा कांग्रेस पर आयकर विभाग द्वारा 3567 करोड़ की देनदारी का नोटिस मिलने के बाद यह पहली रैली थी। निश्चित रूप से चुनावी माहौल के कारण दोनों का महत्व था और संपूर्ण देश का ध्यान दोनों की ओर था। 
 
भाजपा और राजग की दृष्टि से देखें तो यह चुनाव की सामान्य रैली मानी जाएगी। जयंत चौधरी के राष्ट्रीय लोक दल का भाजपा के साथ गठबंधन है और वो इस रैली में मौजूद रहेंगे इसे लेकर किसी को संदेह नहीं था। इसलिए रैली का आकर्षण तो था किंतु कौतूहल जैसा कुछ नहीं था।

इसके समानांतर आईएनडीआईए की रैली को लेकर कौतूहल भी था तथा इसके नेताओं के लिए अभी तक का सबसे बड़ा अवसर भी माना जाएगा। कारण, विपक्ष जनता के बीच स्वयं को पीड़ित और दमित बताकर चुनाव में जा रहा है तथा उसका मूल स्वर यही है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नेतृत्व वाले सरकार विपक्षी नेताओं और पार्टियों को खत्म करने के लिए सरकारी एजेंसियों का दुरुपयोग कर रही है जो देश में लोकतंत्र को खतरा है। इसलिए इसका नाम ही लोकतंत्र बचाओ रैली दिया गया। 
 
स्वाभाविक ही राजधानी दिल्ली से देश की जनता को अपनी बात प्रभावशाली ढंग से पहुंचाने तथा उनका समर्थन हासिल करने की संभावना पैदा करने का अभी तक का सबसे बड़ा अवसर था। अगर वह अपने कार्यकर्ताओं घनघोर समर्थकों के अलावा कुछ समूह को और प्रभावित कर पाते तो चुनाव में ताकत बढ़ाने की संभावना पैदा हो सकती थी। प्रश्न है कि क्या इस दृष्टि से आईएनडीआईए की रामलीला मैदान रैली वाकई सफल मानी जा सकती है?
 
राजधानी दिल्ली में आम आदमी पार्टी का अभी तक ठोस जनाधार बना हुआ है। 70 में से 62 विधायक उसके हैं। इस कारण यहां अच्छी खासी संख्या अपेक्षित ही थी। इसके साथ पंजाब में भी उनकी सरकार है और हरियाणा ,राजस्थान से कांग्रेस के लोगों की उपस्थिति भी संभावित थी। अखिलेश यादव इसमें शामिल थे इसलिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश से सपा कार्यकर्ताओं और समर्थकों का भी आना निश्चित था। 
 
यह तो नहीं कहा जा सकता कि संख्या दृष्टि से रैली कमजोर थी। संख्या ठीक-ठाक थी। किंतु इतनी तैयारी के बाद राजधानी दिल्ली में जिस तरह का जैन सैलाब दिखना चाहिए था वैसा नहीं दिखा यह सच है। अरविंद केजरीवाल के गिरफ्तार होने के बाद से इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिल रहा है की इतनी विधायकों और पार्षदों वाली पार्टी का प्रचंड विरोध दर्शन राजधानी में क्यों नहीं हो रहा? 
 
आईएनडीआईए में शामिल दलों की जो स्थिति है उसमें इसके ज्यादातर नेताओं या पार्टियों का प्रतिनिधित्व होना था और हुआ। ममता बनर्जी उपस्थित होती तो संदेश ज्यादा बेहतर जाता। नेताओं के भाषणों को देखें तो उनमें नए तत्व या पहलू तलाशना मुश्किल है। तथ्यों, तर्कों और प्रखरता के आलोक में भाषण ऐसे नहीं थे जिनमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार को लेकर लोगों के अंदर गुस्सा और विद्रोह की भावना पैदा हो। 
 
राहुल गांधी अगर 400 पर का नाम लेते हुए मैच फिक्सिंग की बात कर रहे थे तो तेजस्वी यादव ने कहा कि पहले से ही ईवीएम सेट होगा तभी 400 का नारा दिया जा रहा है। यानी ये नेता अपने समर्थकों को भी यही बता रहे थे कि चुनाव आयोग से लेकर ईवीएम तक में इस प्रकार की व्यवस्था कर दी गई है कि परिणाम उनके ही पक्ष में आएगा। इसके द्वारा आईएनडीआईए के नेतागण क्या संदेश दे‌ रहे थे? 
 
यह प्रकारांतर से चुनाव परिणाम के पूर्व ही अपनी पराजय को स्वीकार करने जैसा था। इसके अलावा ज्यादातर नेताओं का भाषण लोकतंत्र खत्म हो गया है, ईडी, सीबीआई जैसी संस्थाओं के माध्यम से विपक्ष के नेताओं पर कार्रवाई की जा रही है, उनको जेलों में डाला जा रहा है, मीडिया को दबाव में ला दिया गया है आदि पर ही टिका हुआ था।
 
विडंबना देखिए कि लोकतंत्र के नाम पर आयोजित रैली का सबसे बड़ा फोकस अरविंद केजरीवाल की पत्नी सुनीता केजरीवाल की उपस्थिति हो गई। जैसे ही समाचार आया कि पंजाब के मुख्यमंत्री भगवान सिंह मान सुनीता केजरीवाल को लेकर रामलीला मैदान पहुंच रहे हैं पूरी मीडिया का ध्यान वही केंद्रित हो गया। सुनीता केजरीवाल ने अपने भाषण में बताया कि अरविंद केजरीवाल जी ने आपके लिए छह गारंटियां दी हैं। ये गारंटिया वही हैं जो पहले से जनता को क्या मुफ्त दिया जा सकता है अरविंद केजरीवाल की ओर से अनेक बार बोला जा चुका है। 
 
महत्वपूर्ण बात यह थी कि सुनीता ने वहीं कह दिया कि हमने यह बोलने के पहले आईएनडीआईए के नेताओं से इस पर चर्चा नहीं की है, लेकिन उम्मीद है कि सभी इसका समर्थन करेंगे। यानी यहां भी अरविंद केजरीवाल ने आईएनडीआईए में स्वयं को सबसे अलग दृष्टिकोण और विचारों वाला नेता अपनी पत्नी के माध्यम से साबित करने की कोशिश की। वास्तव में विपक्ष की रैली से कोई एक रूप, एक स्वर का संदेश नहीं निकल पाया। 
 
नेता एकत्रित जरूर हुए, उनका गुस्सा भी प्रकट हुआ और किसी तरह नरेंद्र मोदी सरकार को सत्ता से हटाने की भावना भी लेकिन इसके अलावा कुछ नहीं। लोगों ने देखा है कि राष्ट्रीय स्तर पर आईएनडीआईए नमक गठबंधन नहीं है। केवल कुछ राज्यों में पार्टियों के बीच गठजोड़ है और कुछ में ये आपस में लड़ रहे हैं। जैसे पश्चिम बंगाल और केरल में इनके घटक एक दूसरे के सामने हैं। अन्य जगह भी कई प्रकार के अंतर्संघर्ष‌ व‌‌ द्वंद्व हैं। 
 
इस रैली का कोई एक ऐसा नेता नहीं था जिनका सभी एक स्वर में नाम ले और लगे कि उनके नेतृत्व में रैली से एकजुटता का स्वर निकला है। यहां तक कि रैली में सुनीता केजरीवाल शामिल होंगी इसकी जानकारी भी दूसरी पार्टी के ज्यादातर नेताओं को पहले से नहीं थी। ऐसा होता तो मंच से इसकी घोषणा की जाती।

शायद आम आदमी पार्टी या फिर कई अन्य पार्टियों और नेताओं को यह उम्मीद रही होगी कि हेमंत सोरेन की पत्नी कल्पना सोरेन तथा सुनीता को मंच पर लाकर लोगों की सहानुभूति बटोरी जा सकती है। किंतु इसका दूसरा संदेश यह भी निकल रहा था कि आखिर इन नेताओं के जेल में जाने के बाद पार्टी के दूसरे पुरुष या महिला नेता इनकी आवाज बनकर क्यों नहीं आ रहे? 
 
क्या पार्टी में भी परिवार की ही आवाज इन नेताओं का प्रतिनिधित्व करेगी? यह ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर आईएनडीआईए के लिए देना आसान नहीं रहेगा। आम आदमी पार्टी की ओर से भगवंत मान ने भी अपनी बातें रखी, पर वे वहां अरविंद केजरीवाल के प्रतिनिधि या पार्टी के भावी नेता के रूप में नहीं दिख रहे थे। दूसरी ओर मेरठ का विश्लेषण करें तो वहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राजग के सभी घटक दलों के बीच विचार, वक्तव्य और व्यवहारों में एकरूपता स्पष्ट दिखाई दे रही थी। किसी का कोई अलग स्वर नहीं था। 
 
प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में भ्रष्टाचार के विरुद्ध कार्रवाई को सही ठहराते हुए यही कहा कि यह जारी रहेगी और इसके नाम पर जो दल इकट्ठा हो रहे हैं उनके दबाव में सरकार नहीं आएगी। उन्होंने कहा कि मैं कहता हूं कि भ्रष्टाचार खत्म करेंगे और वह कहते हैं कि हम सरकार को हटाएंगे। दूसरे, उन्होंने लोगों को बताया कि हम अगले 5 वर्षों के लिए सरकार का एजेंडा तैयार कर रहे हैं और परिणामों के बाद नई सरकार गठन होते ही 100 दिनों के कार्ययोजना पहले से तैयार कर ली गई है। 
 
इस तरह का आत्मविश्वास प्रकट करके जनता को बताया गया कि हम केवल देश के लिए ही सोचते हैं और जिनके स्वार्थ पर आघात पहुंचा है, जिनके भ्रष्टाचार सामने लाकर कार्रवाई हुईं हैं, वही सब हमारी या हमारी सरकार का विरोध कर रहे हैं। इसके साथ-साथ योगी आदित्यनाथ ने मोदी की गारंटी और हिंदुत्व संबंधी विचारों और कार्यों को सामने रखकर कार्यकर्ताओं तथा समर्थकों के मनोभावों को अभिव्यक्ति दी। 
 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ ने जब ये बातें रखीं तो तालियों और नारों से दिखाई दे रहा था कि समूह किस तरह नेताओं के साथ जुड़ा हुआ है। इसी तरह जयंत चौधरी ने जब यह कहा कि दूसरी सरकार होती तो चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न सम्मान नहीं मिलता इसके बाद जनसमूह ने तालियों की गड़गड़ाहट से इसे समर्थन दिया। इस तरह दोनों रैलियों के तुलना करके आप स्वयं उद्देश्यों की दृष्टि से उनकी सफलता और प्रभावों का आकलन कर सकते हैं।

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)
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