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Written By WD Feature Desk
Last Updated : सोमवार, 12 फ़रवरी 2024 (14:34 IST)

धारदार व्यंग्य के लिए ग़ुस्सा ज़रूरी- जवाहर चौधरी

धारदार व्यंग्य के लिए ग़ुस्सा ज़रूरी- जवाहर चौधरी - Jales mashik rachna paath 125
इन्दौर। धारदार व्यंग्य के लिए ग़ुस्सा ज़रूरी है। वरिष्ठ व्यंग्यकार जवाहर चौधरी ने अपने लेखकीय वक्तव्य में इस बात को रेखांकित किया। वे 10 फरवरी को आयोजित जलेस मासिक रचना पाठ के 125 वें क्रम में बोल रहे थे।
 
शासकीय श्री अहिल्या केंद्रीय पुस्तकालय में वरिष्ठ व्यंग्यकार जवाहर चौधरी ने परसाई का जीव, रामगढ़ में साहित्य के नए प्रतिमान, कवि की हत्या का प्रेमपत्र, बांयी आंख की फड़कन और दही-शक्कर का शगुन सहित पांच व्यंग्यों का पाठ किया। प्रस्तुत रचनाओं में विकास कम हवस ज्यादा है, सिस्टम को टमटम बना लिया है, बुद्धिजीवी समस्या होते हैं, बुद्धिजीवी लोगों से मुक्त भारत, जुमले हमेशा फर्टीलाइजर का काम करते हैं आदि पंक्तियां व्यंग्य की जमीन को गंभीरता से परिचित कराती रही।
 
चर्चा की शुरुआत करते हुए देवेंद्र रिणवा ने कहा कि ये व्यंग्य एक बेहतरीन और मुहावरेदार भाषा के साथ हमारी वर्तमान परिस्थितियों का चित्रण करते हैं। योगेन्द्र नाथ शुक्ल ने कहा कि व्यंग्य एक ऐसी विधा है, जिसे सुनकर या पढ़कर सुख और दुख दोनों की अनुभूति होती है, उसका हास्यबोध आपको गुदगुदाता है तो उसके सामाजिक सरोकार आपको पीड़ित करते हैं। जवाहर जी के यहां हमारी सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियों का चित्रण एक तीखे तेवर के साथ होता है।
 
सुरेश उपाध्याय ने कहा कि इन व्यंग्यों में एक जागरूक नागरिक की पीड़ा उभर कर सामने आती है। चुन्नीलाल वाधवानी ने भी इससे सहमति जताई। विभा दुबे ने कहा कि जवाहर जी के व्यंग्य सुनना मतलब अपने समाज का अवलोकन करना है। रजनी रमण शर्मा ने कहा कि अभी परसाई जी के जन्मशती चल रही है और जवाहर जी को सुनने से लगता है कि हम परसाई जी के व्यंग्य की पाठशाला से कुछ सीख रहे हैं। प्रस्तुत व्यंग्य विचार सापेक्ष हैं।
 
प्रदीप मिश्र ने कहा कि किसी भी रचना को सुनते हुए हम उस की रचना प्रक्रिया में अपने आप को तलाशने लगते हैं, और यह उस रचना की सार्थकता बन जाती है। जवाहर जी के यहां ना केवल भाषिक विन्यास व्यंग्य के अनुकूल है वरन् कुछ वाक्य तो ऐसे हैं जिनको शीर्षक बनाकर पूरा का पूरा गंभीर आलेख लिखा जा सकता है। प्रदीप कान्त ने कहा कि यह सारे व्यंग्य हमारे समाज का प्रतिबिम्ब हैं जिनसे जवाहर जी की तीक्ष्ण दृष्टि साफ़ साफ़ दिखती है। 
 
चित्रकार ईश्वरी रावल ने चर्चा में सवाल उठाया कि यदि गुस्सा ना आए तो क्या व्यंग्य ना लिखा जाए। वरिष्ठ कवि संदीप श्रोत्रीय ने कहा कि सबसे महत्वपूर्ण यह है कि जवाहर जी अपने समय को महत्वपूर्ण और धारदार तरीक़े से व्यक्त कर रहे हैं। चर्चा के अंत में जवाहर जी ने लेखकीय वक्तव्य में कहा कि मैं नाराज़ होता हूं तो व्यंग्य लिखता हूं। यदि परिस्थितियों को देख कर आपके मन में ग़ुस्सा नहीं उपजता तो एक धारदार व्यंग्य नहीं बन सकता, बिना ग़ुस्से के तो विधा से खेलना हो सकता है, धारदार व्यंग्य नहीं, जो समय और समाज को उसकी स्थिति दिखाने के लिए ज़रूरी है।
 
चर्चा में सत्य प्रकाश सक्सेना, शशि निगम, नेहा लिम्बोदिया ने भी अपने विचार व्यक्त किए। कार्यक्रम का संचालन प्रदीप मिश्र ने किया और देवेन्द्र रिणवा ने आभार माना।
 
प्रदीप कान्त (सचिव, जनवादी लेखक संघ, इन्दौर)
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